आघुनिक युग के दृष्टा, युवा संन्यासी दो रूप में भारतीय संस्कूति की सुगन्ध विदेशों में बिखेरने वाले साहित्य, दर्शन और इतिहास के विद्वान स्वामी विवेकानंद का मूल नाम नरेन्द्रनाथ दत्त था । युवावस्था में नरेन्द्रनाथ पाश्यात्य दार्शनिकों केभौतिकवाद तथा ईश्वर के अस्तित्व में दृढ़ भारतीय विश्यास के कारण गहरे द्वन्द्र से गुजर रहे थे, तभी बंगाल ने काली माँ के अनन्य उपासक पूज्य रामकृष्ण परमहंस की दिव्य दृष्टि ने उम्हें ईश्वर की सर्याच्व अनुभूति का मार्ग प्रशस्त किया । रामकृष्ण परमहंस ने नरेन्द्र को आत्म दर्शन कराकर विवेकानंद वना दिया ।
विवेकानंद वड स्वान दृष्टा थे । उन्होंने एक ऐसे समाज की कल्पना की थी जिसमें धर्मं था जाति के आधार पर मनुष्य-मनुष्य में कोई वेद नहीं रहे । उन्होंने येदान्त की मानवतावादी व्याख्या का मानववाद का प्रचार किया 1 स्वामी जी ने अमेरिका क शिकागो में सन 1893 में आयोजित 'विश्व धर्मं महासभा" में भारत की और से सनातन धर्मं का प्रतिनिधित्व कर …
सम्बोधन से अपने व्याख्यान को प्रारम्भ कर श्रोताओं का सहज आकर्षण अपनी और कर लिया । भारत का अध्यात्म से परिपूर्ण वेदान्त दर्शन सम्पूर्ण विश्व में विवेकानंद की ववतृता के कारण ही प्रतिष्ठित हो सका । स्वामी विवेकानन्द का जन्म दिन 12 जनवरी राष्टीय युवा दिवस‘ के रूप में मनाया जाता है । उनक द्वारा स्थापित रामकृष्ण मिशन आज भी विवेकानंद के विचारों को प्रसारित कर रहा है ।
संकलित पाठ में स्वामी विवेकानन्द के व्याख्यान के माध्यम से भारत के नवयुवकों को चरित्र निर्माण की शिक्षा देते हुए उन्हें राष्ट्र के नव निर्माण के लिए प्रेरित किया है ।
अपने को अर्पित करना ही राष्ट्र की सबसे बडी सेवा है 1 राष्ट्र भक्ति कोरी भावना नहीं है, उसका आधार विवेक और प्रेम है जिसकी अमिय्यवित्त विवेकपूर्ण कार्य करते हुए बाहरी भेदभाव की मूल कर हर एक मनुष्य से प्रेम करने मेँ देखी जा सकती है । विवेकानन्द के उपदेश का सूत्र वाक्य है. उठो, जागो और तव तक रूकी नहीं. जब तक लक्ष्य प्राप्त न हो जाये। व्याख्यान का अ३श होने वो कारण यह निबंध सम्बोधन' शेली में लिखा गया है ।
मेरी आशा. मेरा विश्वाश नविन पीढी के नवयुवकों पर है । उन्हीं से, मैं अपने कार्यंक्तर्रआँ का संग्रह करूंगा । वे एक वन्दि से दूसरे केन्द्र का विस्तार काँपे और इस प्रकार हम 'धीरे-धीरे समग्र भारत में फैल जायेगे । भारतवर्ष का पुनरूत्थान होगा, पर यह शारीरिक शक्ति से नहीं. वरन आत्मा की शक्ति द्वारा । यह उत्थान विनाश की ध्वजा लेका नहीं, बरन शांति और प्रेम की ध्वजा से भारत के दष्टीय आदर्श हैं… त्याग और सेया । आप इन धाराओं में तीव्रता उत्पन कीजिए और शेष सब अपने आप ठीक हो जायेगा । तुम काम में लग जाओं फिर देखोगे. इतनी शक्ति आयेगी कि तुम उसे संभाल न सकोगे । दूसरों के लिए रत्ती…भर सोचने, काम करने से भीतर की शक्ति जाग उठती है । दूसरों कं लिए रस्ती-भर सोचने से धीरे-घीरे हदय में सिंह का सा वल आ जाता है । तुम लोगों से ने इतना स्नेह करता हू परंतु यदि तुम लोग दूसरों कं लिए परिश्रम करते-काते मर भी जाओ, तो भी यह देखकर मुझे ग्रसन्नता ही होगी । केवल वही व्यक्ति सबकी अपेक्षा उत्तम रूप से कार्यं करता है. जो पूर्णतया निस्वाथी है. जिसे न तो घन की लालसा है, न कीर्ति की और न किसी अन्य वस्तु की ही और मनुष्य जब ऐसा काने में समर्थ हो जायेगा, तो वह भी एक बुद्ध वन जायेगा, उसके भीतर से ऐसी शक्ति प्रकट होगी, जो संसार की अवस्था क्रो सम्पूर्ण रूप से परिवर्तित कर सकती है । हमेशा बढते चलो ! मरते दम तक गरीबों सय बाकी चीजें स्वयं आपका अनुसरण करेगी । परस्पर के घृणित देवभाव क्रो छोडिए और सदुददेश्य, सदुपाय एवं सत्साहस का अवलम्बन कीजिए । आपने मनुष्य जाति ने जन्म लिवा है. तो अपनी कीर्ति यहीँ छोड जाइए । हमें कचल मनुष्यों की आवश्यकता है. और सव कुछ हो जायेगा, किन्तु आवश्यक्ता है वीर्यदान, तेजस्वी, श्रद्धासम्प्रन्न और अन्त तक कपटरहित नवयुवकों की । इस प्रकार के तो नवयुवकों से संसार क सभी भाव बदल दिये जा सवन्ते है और सव चीजों की अपेक्षा इच्छाशक्ति का अघिक प्रभाव है । इच्छाशक्ति कँ सामने और सव शक्तियाँ दव जायेंगी, क्योंकि इच्छाशक्ति साक्षात् ईश्वर से निकलकर आती है । विशुद्ध और दृढ इच्छाशक्ति सर्वशक्तिमान है 1 मैने तो नवयुवकों का संगठन करने क लिए जन्म लिया है । यहीं क्या, प्रत्येक नगर में. सडकों पर और जो मेरे साथ सम्मिलित होने को तैयार है. में याहता हूँ कि इन्हें अप्रतिहत गतिशील तरंगो की भाँति भारत मे सव ओंर मेजू जो दीन-हीनॉ एवं पददलितो कं पर-सुरद्र. नैतिल्ता. घर्मं एवं शिक्षा उड्रेल दे और इसे नै करूंगा । ने सुधार में विश्वास नहीं करता , मै विश्वास करता हूँ स्वाभाविक उन्नति में । मैं अपने को ईश्वर क स्थान पर प्रतिष्ठित कर अपने समाज कं लोगों कं सिर पर यह उपदेश ’तुम्हें इस भाँति चलना होगा, दुसरे प्रकार नहीँ' मढ़ने का साहस नहीं का सकता । मै तो सिर्फ उस गिलहरी की भाँति होना चाहता हू जो श्री रामचंद्र जी कं पुल वनाने कं समय थोड़ा बालूदेका अपना भाग पूरा कर संतुष्ट ठो गयी थी । यही मेरा भी भाव है । लोग स्वदेश-भक्ति की चर्या करते है । म स्वदेश-भक्ति में विस्वास करता दूँ। पर स्वदेश-भक्ति के सम्बन्ध ने मेरा एक आदर्श है । यड्रे काम करने दो लिए तीनॉ चीजो की आवश्यक्ता होती है । बुद्धि और विचार शक्ति हम लोगों की थोडी सहायता कर सकती है । वह हमको थोडी दूर अग्रसर करा देती है और वहीं ठहर जाती है ।
उठो, जागो, स्वयं जागकर औरो को जगाओ । अपने नर जन्म को सफल करो ! ”उतिष्ठस जाग्रत प्राप्य मरान्तिनोघत"उठो, जागी और तव तक फ्लो नहीं, जय तक लक्ष्य प्राप्त न हो जाय ! जो अपने आप में विस्वास नहीँ करता, वह नास्तिक है । प्राचीन धर्मा ने कहा है, वह नास्तिक है जो ईश्वर में यिश्यास नहीं करता । नया धर्म कहता है. यह नास्तिक है जो अपने आप में दिश्यास नहीं करता । यह एक वडी सच्चाइं है. शक्ति ही जीवन और कमजोरी ही मृत्यु है । शक्ति परम सुख है, जीवन अजरक्या है. कमजोरी कभी न हटने बाला बोझ और यंत्रणा है, कमजोरी ही मृत्यु है 1
सबसे पहले हमारे तरूर्णो को मजबूत बनना चाहिए । धर्म इसकं बाद की वस्तु है । मेरे तरूण मित्रो शक्तिशाली बनो, मेरी तुम्हें यही सलाह है । तुम गीता कं अध्ययन की अपेक्षा फुटबाल कं द्वारा ही स्वर्ग कं अघिक समीप पहुंच सकोगे । ये कुछ काहे शब्द है. पर मैं उम्हें कहना चाहता हूँ क्योंकि तुम्हें प्यार करता हुँ । मैं जानता हुँकि काँटा कहों चुभता है 7 मुझे इसका कुछ अनुभव है । तुम्हारे स्नायु और मांसपेशियों अधिक मजबूत होने पर तुम गीता अधिक अच्छी तरह समझ सकोगे । तुम. अपने शरीर में शक्तिशाली रक्त प्रवाहित होने पर, श्रीकृष्ण कं तेजस्यी गुणों और उनकी अपार शक्ति को अघिक समझ सकोगे । जब तुम्हारा शरीर मजबूती से तुम्हारे पेरों पर खडा रहेगा और तुम अपने को "मनुष्य" अनुभव करोगे, तब तुम उपनिषद और आत्मा की महानता को अघिक अच्छा समझ सकोगे ।
मैं अभी तक क धर्मों को स्वीकार करता हूँ और उन सबकी पूजा करता हूँ। मैं उनमे से प्रत्येक वो साथ ईश्वर की उपासना करता हूँ , वे स्वयं चाहे किसी भी रूप में उपासना करते हों । मैं मुसलमानो की मस्जिद मै जाऊंगा, मैं ईसाइयों कं गिरिजा ने क्रास कं सामने घुटने टेक्ला प्रार्थना करूंगा; मे बौध्द-मंदिरॉ में जाकर बौद्ध और उनकी शिक्षा की शरण लूँगा ।
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