Tuesday, September 4, 2018

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महाराणा प्रताप का जीवन ओर संघर्ष

महाराणा प्रताप का परिचय ⇰                                                                                                                                                                     महाराणा प्रताप (1572 -1597 ई) - स्वाधीनता के लिए संघर्षरत सभी देशभक्तों के लिए महाराणा प्रताप का नाम महान् प्रेरक और परम आदरणीरा है । 


⇰ शौर्य ओंर स्यामिभमान के  प्रतीक प्रताप का जन्म 9 मई (ज्येष्ठ शुक्ल तृतीया) 1540  ई. को कूम्मलगढ़ के कटार गढ महल मे हुआ था । प्रताप के पिता का नाम महाराणा उदयसिंह व माता का नाम जयवंता वाई था जयवंता बाई पाली के अखैराज सोनगरा चौहान की पुत्री थी । महाराणा प्रताप जब 32 वर्ष के थे तब उनकं पिता उदयसिंह की मृत्यु होली के दिन 28 फरवरी 1572 ई. को गोगुन्दा में हुई । गोगुन्दा में ही महादेव बावडी पर 28 फरवरी 1572 ई. को प्रताप का राजतिलक किया गया |
जबकि महाराणा उदयसिंह द्वारा नामित उत्तराधिकारी जगमाल को मेवाड के  सामन्तो ने उपदस्त कर दिया ||


1. हल्दीघाटी का युद्ध (21 जून 1576 ई) मेवाड राज्य की गद्दी तो प्रताप को मिल गयी, परन्तु उस समय की संकटकालीन स्थिति में राज्य का भार संभालना कोई सरल कार्यं नहीं था । इस समय भारत पर मुगल सम्राट अकबर का शासन था । राजपूताने की कई रियासत जिनमें आमेर, बीकानेर व जैसलमेर अकबर की अधीनता स्वीकार कर चुकं थे किन्तु प्रताप ने मातृभूमि की स्वग्रथीनता को महत्व दिया और प्रताप ने अकबर की अधीनता स्वीकार न करकं संघर्ष का मार्ग चुना ।

अकबर ने 1572 इ . में संधि का प्रस्ताव लेकर जलाल खाँ कोरची को भेजा और बाद में 1573 ई. में कुंवर मानसिंह कछवाहा, फिर मानसिंह के पिता भगवन्तदास और चौथी बार टोडरमल जैसे नीति कुशल प्रतिनिधि प्रताप पर दबाव डालकर संधि के लिए विवश करने आए । ये चारों शिष्टमंडल प्रताप को समझाने में असफल रहे । वस्तुत८ यह प्रताप की अदभूत कूटनीतिक चतुराई थी । प्रताप जानते थे कि युद्ध अपरिहार्य है, पर वे तैयारी के  लिए थोडा समय चाहते थे। और इसी तरह उन्होंने चार वर्ष बिता दिये । आखिरकार हल्दीघाटी का युद्ध हुआ । अकबर ने इस युद्ध के  लिए मानसिंह को सेनापति बनाया तथा उसका सहयोगी आसफखाँ को नियुक्त किया । मानसिंह 3 अप्रेल 1576 ई. को शाही सेना लेकर अजमेर से रवाना हुआ । उसने पहला पडाव मांडलगढ़ (भीलवाडा) में डाला ।
महाराणा प्रताप ने गौगुन्दा और खमनौर की पहाडियों क मध्य स्थित हल्दीघाटी नामक तंग घाटी में अपना पडाव डाला। 21 जून 1576  क्रो हुए हल्दीघाटी क युद्ध में मुट्रठी भर राजपूतों ने विशाल मुगल सेना का सामना किया । प्रताप के सेनापति हकीम खाँ सूरी के नेतृत्व में राजपूतों ने मुगलों पर पहला वार इतना आक्रामक किया कि मुगल सैनिक चारों और जान व्रचा कर भागे 1 मुगल इतिहासकार बदायुनी जो मुगल सेना के  साथ था वह भी युद्ध स्थल से भाग खडा हुआ। प्रताप ने भी अपनी सुरक्षा की परवाह न करते हुए मानसिंह पर सीधा आक्रमण कर दिया । मानसिंह इस समय 'मरदाना नामक हाथी पर बैठा हुआ था । प्रताप के स्वामीभक्त झोडे ‘चेतक’ ने अपने पैर हाथी के  सिर पर टिका दिए । प्रताप ने अपने भाले से भरपूर प्रहार मानसिंह पर किया परन्तु मानसिंह होदे में छिप गया ।

हसी समय प्रताप क्रो युगल सेना ने घेर लिया। हस स्थिति में  झाला मान ने प्रताप र्क राजचिहन त्वरित गति से अपने सिर पर धारण कर मुगलों को धोखे में डाल दिया एवं स्वयं का बलिदान कर दिया । हल्दीघाटी से कुछ दूर ‘बलीचा’ नामक स्थान पर घायल चेतक की मृत्यु हो गई। यहीँ पर चेतक की छतरी बनी हुई है 1 हल्दीघाटी कं युद्ध में महाराणा प्रताप की तरफ से झाला बीदा, मानसिंह सांनगरा, रामदास, रामशाह और उसक तीन पुत्र वीरता का प्रदर्शन करते हुए मारे गए । सलूम्बर का रावत कृष्णदास चूडावल, घणेराव का गोपालदास भामाशाह, ताराचन्द आदि रणक्षेत्र में बचने वाले प्रमुख सरदार थे|

इस तरह हल्दीघाटी का युद्ध समाप्त हुआ । अकबर न तो प्रताप को पकड सका अथवा मार सका और न ही मेवाड की सैन्य शक्ति का विनाश कर सका । अकबर का यह सैन्य अभियान असफल रहा तथा पासा महाराणा प्रताप के  पक्ष में था 1 युद्ध कं परिणाम से खिन्न अकबर ने मानसिंह और आसफ खाँ की कुछ दिनों कं लिए ड्रयोढी बंद कर दी अर्थात दरबार में सम्मिलित होने से वंचित कर दिया । फिर भी तात्कस्नालिक एवं अल्पकालिक परिणाम जो भी हुए हो, इतना निश्चित है कि इस युद्ध के  दूरगामी परिणाम प्रताप एवं मेवाड के  पक्ष में गए। हल्दीघाटी युद्ध के  बाद अकबर ने प्रताप को पूरी तरह से कुचलने कं लिए शाहबाज खा को तीन बार मेवाड भेजा । किन्तु उसे भी सफलता प्राप्त नही ही सकीं । 1580 ई. में अकबर ने अब्दुल रहीम खानखाना को प्रताप कं विरूद्ध भेजा । खानखाना कं साथ उसका परिवार भी आया जिसे उसने शेरपुर में छोडा । प्रताप कं पुत्र अमरसिंह ने शेरपुर पर आक्रमण कर खानखाना कं परिवार को बंदी बना लिया 1 महाराणा प्रताप इससे नाराज हुए और उन्होंने अमरसिंह को अब्दुल रहीम खानखाना कं परिवार को सम्मानपूर्वक वापस छोडकर आने कं लिए कहा। राणा प्रताप ने भामाशाह से प्राप्त आर्थिक सहायता से सेना का पुनर्गठन किया और अवसर देखकर


2 -1582 ई. में दिवेर (राजसमन्द')- के दरें पर स्थित मुगल थाने पर आक्रमण किया । दिवेर की सम्पूर्ण घाटी पर प्रताप का अधिकार हो गया । कर्नल टाड ने दिवेर के  युद्ध को ‘मेवाड का मेराथन' की संज्ञा दी है 1 प्रताप के  विरूद्ध अंतिम अभियान 1584 ई. मेँ जगन्माथ के  कछवाहा ने किया किन्तु उसको सफ़लता नहीं मिली|| 

धनुष की प्रत्यंचा खींचने कं प्रयत्न में प्रताप घायल हो गये और 19 जनवरी 1597 ई. को 57 वर्ष की आयु में प्रताप का निधन 'चावण्ड’ में हो गया । चावण्ड कं निकट 'बांडोली' गॉव में महाराणा का दाह संस्कार हुआ ||

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