बनास सभ्यता ; आहड़
सरस्वती -दृष्दवती सभ्यता की भाती बनस्ब अपनी प्राचीन सस्कृति के अवशेषों के लिए महत्त्वपूर्ण है । यहाँ की प्राकृतिक स्थिति और बनास, बेडच, आहड़, गंभीरी आदि नदियों के कूल तथा खनिज द्रव्यों क्री प्रचुरता ने इसको सांस्कृतिक दृष्टि से सतत् उन्नतोन्मुखी बनाया ।
संभवत: जिन आदिवासियों ने इस ओर प्रवजन किया, वे प्राकृतिक सुबिधा और सुरक्षा की व्यवस्था के कारण यहीं पर स्थाई रूप से बस गये । आगे चलकर पर्वतमालाओं तथा नदी-धाराओँ के बाहुल्य ने बाहर से आने चाले क्षत्रप, शक, मालव, हूण, गुर्जर आदि विदेशियों क्रो भी इस भूभाग ने अपने अंचल में बसाया और वे कालांतर में यहॉ के निवासी बन गये । खनिज धातुओं की समृद्धि ने उन्हें व्यवसाय दिया । मेवाड में ताँबा, जस्ता, चाँदी, शीशा, मैंगनीज, लोहा और विविध प्रकार के पत्थरों की लगभग 50 से अधिक खानें हैं जिन्हें प्रागैतिहासिक काल से आज़ तक खूब खोदा गया और उनका उपयोग किया गया ।
आहड़ सभ्यता जो धुलकोट के नाम से प्रसिद्ध
ताम्र युग की सभ्यता से संबंधित उदयपुर में आहड़ नाम की नदी के किनारे एक पुरानी त्ताम्रवती नगरी है जो धूत्नक्रोट के नाम से प्रसिद्ध है ।
इस धूल के ढेर में प्राचीन बस्ती के अवशेष मिले हैं जौ आज से 4000 वर्ष पूर्व बसी थी ; उत्स्यव्रमृ के विभित्र स्तरों से पता चलता है कि उस लंबे समय से 18बी सदी तक यहाँ कहँ बार बस्ती बसी और उज'डी 1 यहाँ पनपने चाली सभ्यता को आहड़ सभ्यता भी कहते हैं जिसका इतिहास अतिप्राचीन और निरंतर है । ऐसा लगता है कि आहड़: के आस-पास ताँबे की अनेक खानों के होने से सतत् रूप से इस स्थान के निवासी इस धातु के उपकरणों क्रो बनाते रहे और उसे एक ताम्रयुगीन कौशल केन्द्र बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ । ताँबे क्री बनी यहाँ क्री कृल्हाडियाँ स्थानीय खानों से उपलब्ध धातु क्रो ही वनी होंगी, यह संभावना है ।
यह धूलक्रोट का टीला एक और आहड़ नदी और दूसरी ओर एक नाले के किनारे है । इसकी लंबाई 500 मीटर, चौडाई 275 मीटर एवं ऊँचाई 12 .8 मी. है । इसी में आहड़ के अवशेष दबे पड्रे हैं । तीन बार उतव्रनन के फलस्वरूप यहाँ कुछ परीक्षण परिखाएँ रब्रोदी गई और कई उपकरण, ताँबे की कुल्हाडियाँ, ताँबे के फलक, लोहे के औजार, रिगवेल, बॉस के टुकड़े, हड्डियाँ, भाँड आदि सामग्री प्राप्त हुई । सबसे गहरी खाई 4० फुट तक खोदी गई जिसके आधार पर बस्ती के बनने व नष्ट होने की तालिका भी तैयार की गई । स्तरीकरण से अनुमानित है कि आठ बार यहाँ वस्ती वनी और उज़ड्री । उज़ड्री हुई बस्ती पर ही समतल भूमि कर और नई मिट्टी डालकर उत्तरोत्तर मानव यहाँ बसते गये । इस पूरे क्रम में आज़ से चार हजार वर्ष से लगाकर अठारहवीं शताब्दी तक का समय लगा ।
आवास स्थल
धूलक्रोट की खुदाई द्वारा उन मकानों के संबंध में भी कुछ जानकारी होती है, जिनमें आहड़न्सभ्यता के निवासी रहते थे । इन मकानों के बनाने में कंकरीट से मिली मिट्टी तथा मास में बहुतायत से मिलने वाले पत्थर व बाँस व पेडों की डालियों का प्रयोग किया जाता था । दीवारों क्रो मिट्टी से पोत लिया जाता था और फर्श क्री अधिक मजबूती के लिए मिट्टी मेँ गोबर मिला लिया जाता था । कंकर और मिट्टी को और 'बीच-बीच में पत्थरों क्रो चुनकर आधार व दीवारें बनाई जाती थी, जो टिकाऊ होती थीं । सबसे बड़। मकान जौ यहां क्री खुदाई मेँ मिला है उसकी लम्बाई 33 फुट 1० इंच थी जिसके विभाजन कर दो कमरे बना दिये गये । अनुमान है कि मकानों क्री योजना में आँगन या गली या खुला स्थान रखने अनुमान है एक मकान में 4 से 6 बड़े चूस्सों का होना आहड़ में वृहत् परिवार या सामूहिक भोजन बनाने की व्यवस्था . पर प्रकाश डालते हैँ । चूल्हो के बीच निकला हुआ भाग भोजन सामग्री अथवा भाग्नडों के रखने के स्थान क्रो इंगित करता है । चूल्हो की पुन: मरम्मत होती श्री जो विविध अंगुलियों के निशानों से स्पष्ट है । यहाँ एक 4 ४ 3 फुट का चूल्हा देखने में आया जिसके संबंध में अनुमानित है कि इसका प्रयोग ताँबे को पिघलाने में किया जाता हो । कुछ ऐसे कमरे भी देखने में आये जिनमें सीधे ब योड़ चाली सिलें व पट्टे थै और जिनमें आधे गड़े हुए भाण्ड थे । ऐसे उपकरणों वाले कमरे रसोईघर के काम में आते थे । मकानों के विविध आयातों से तथा उनके आकार व प्रकारों में बृद्धि होने के चिहों से प्रतीत होता है कि ज्यों-ज्यों आहड़ में ताँबे से औजारों को बनाने का व्यवसाय बढता गया , कमरों की लम्बाई-चौडाई: भी बढती गई । इन कमरों की छतें बाँस व घास-फूंस से दँकी जाती र्थी और बहे कमरों का विभाजन बाँसों क्रो सीधा गाड़ कर तथा उन्हें मिट्टी से पोतकर किया जाता था । बडे कमरों में बडी बल्ली क्रो सहारा देने के लिए लकड्री के खंभों का भी प्रावधान यहाँ रहता था । प्राय ८ मकानों को लम्बाई उत्तर…दृक्षिण क्या चौडाई फूं… पश्चिम रहती श्री ।
आहड़ से उस्खनित बर्तनों तथा उनके खंडित टुकडों से हमें उस युग में मिट्टी
के बर्तन बनाने की कला का अच्छा परिचय मिलता है । प्रारंभिक काल के बने बर्तन सादे ब गोल रेखा वाले मिले हैं । ज्यों-ज्यों समय निकलता गया इस कौशल की निपुणता बढती गई । चाक से बने बर्तनों को भट्टे में पकाया जाता था । उभरी हुई आवृत्तियों, छेद द्वारा अलंकरण, फूल-पत्ती, पशु-पक्षी का चित्रण आदि इनकी विशेषताएँ
थीं । इन पर चमकदार पब्लिश कुम्हार के शिल्प की उत्कृष्टता का प्रत्यक्ष प्रमाण है ।
बर्तनों क्री विविधता में कटोरे, कटोरिर्यों, ढवकन, प्याले, तवे, तश्तरियों, परातें, कलश, मटके, मटकियाँ, रकाब्रियाँ, सुराहियाँ, धूपदान आदि हैं जिनके विधिवत् अध्ययन से सास्कृतिक उन्नति के स्तर नापे जा सकते हैं । कुछ ऐसे भी बर्तन प्रकाश में आये हैं जो समृद्ध परिवार द्वारा काम में लाये जाते थे । बर्तनों की नवकाशी व रंग के प्रयोग से उपकरण उन्नत तकनीकी कुशलता के प्रमाण हैं । काँच, मिट्टी, स्कटिक,
सौप व कौडी के उभार चाले मणिये इतिहासकालीन कला के प्रतीक हैं \\
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